गीता प्रेस, गोरखपुर >> मनुष्य का परम कर्तव्य - भाग 1 मनुष्य का परम कर्तव्य - भाग 1जयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है मनुष्य का परम कर्तव्य....
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
‘कल्याण’ के 33वें और 34वें वर्ष में समय
–समय पर मेरे
जो लेख निकले हैं, उन्हीं का यह संग्रह पुस्तकाकार में प्रकाशित किया जा
रहा है इनमें मानव मात्र के कल्याण के लिये, गीतोक्त निष्काम कर्म, भक्ति,
ज्ञान, वैराग्य, संयम, वर्णाश्रमधर्म, सत्य, श्रद्धा, समता, भगवत्प्रेम,
भगवान् की दया, प्रारब्ध और पुरुषार्थ एवं यथार्थ सुख आदि अनेक आध्यात्मिक
तत्त्वों का विशद विवेचन किया गया है। साथ ही चतुःश्लोकी भागवत भी
व्याख्यासहित दी गयी है। इससे यह संग्रह कर्मयोगी, भक्तियोगी, और
ज्ञानयोगी सभी प्रकार के साधकों के लिये परम उपयोगी है।
अतः पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे मन लगाकर इन लेखों को पढ़ें और अपनी श्रद्धा, विश्वास और रुचि के अनुकूल साधन को अपनाकर आत्म-कल्याण के लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करें।
अतः पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे मन लगाकर इन लेखों को पढ़ें और अपनी श्रद्धा, विश्वास और रुचि के अनुकूल साधन को अपनाकर आत्म-कल्याण के लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करें।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका
जयदयाल गोयन्दका
मनुष्य का परम कर्तव्य
गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है
भगवान् श्रीकृष्णने गीता में जो उपदेश दिया है, वह किसी सम्प्रदाय को
सामने रखकर नहीं दिया है। वह तो सबके लिये समानरूप से पालनीय है। इसीलिये
गीता सार्वजनिक ग्रन्थ है। गीता के उपदेश का हिंदू तो आदर करते हैं, कितने
ही इस्लामधर्म के माननेवाले मुसलमान तथा ईसाई धर्म को मानने
वाले
लोग एवं अन्यधर्मावलम्बी लोग भी इसका आदर करते हैं। जर्मनी, अमेरिका आदि
देशों के निवासियों ने इसका बहुत आदर किया है।
सुना गया है कि योरप के किसी एक बड़े भारी पुस्तकालय में अनेक देशों की भाषाओं और लिपियों की पुस्तकें लाखों की संख्या में एकत्र थीं, जो सुव्यवस्थापूर्वक आलमारियों में सजायी हुई थीं। उस पुस्तकालय के बड़े हाल के मध्य में टेबल पर सुन्दर वस्त्र के ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता की एक पुस्तक रखी हुई थी। वहाँ एक भारतवासी सज्जन गये, उन्होंने उस पुस्तकालय के प्रधान से पूछा—‘टेबल पर सजाकर रखी हुई यह कौन-सी पुस्तक है !’ उन्होंने उत्तर में कहा ‘श्रीमद्भगवद्गीता।’ भारतीय सज्जन ने पूछा—‘भगवद्गीता क्या है ?’ इस प्रश्न को सुनकर उन अधिकारी महोदय को बड़ा आश्चर्य हु्आ। उन्होंने हँसकर कहा—‘बड़े आश्चर्य की बात है कि आप भारत में रहकर भी भारत के प्रधान और उच्चकोटि के महापुरुष श्रीकृष्ण के द्वारा अपने प्रिय मित्र अर्जुन को दिये हुए उपदेशरूप श्रीमद्भगवद्गीता-ग्रन्थ को नहीं जानते ! यह तो बहुत ही लज्जा की बात है। यह सुनकर वे भारतीय सज्जन बड़े लज्जित हुए। उनपर उस प्रखान के उपर्युक्त वचनों का बड़ा असर पड़ा। उन्होंने कहा—‘मैंने नाम तो सुना था, पर इसे देखा न था; अब मैं इसका अध्ययन करूँगा।’
जिस गीता का आदर भारतेतर देशों में भी है, उसका हम भारतीय लोग जितना आदर करना चाहिये, उतना नहीं करते—यह बड़ी ही लज्जा और दुःख की बात है।
गीता बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह भगवान् की वाड्म़यी मूर्ति है, भगवान् का निःश्वास है और भगवान् के हृदय का भाव है। यह उपनिषद् आदि सम्पूर्ण शास्त्रों का सार है। गीता की भाषा बहुत ही सरल, सुन्दर और भावपूर्ण है। गीता के अध्ययन का महत्त्व गंगास्नान और गायत्रीजप से भी बढ़कर कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है। इसका श्रवण, कथन, गायन, और स्मरण—सभी परम मधुर और परम कल्याणप्रद है।
गीता में अठारह अध्याय हैं, सात सौ श्लोक हैं; उनमें बहुत-से ऐसे श्लोक हैं, जिनमें से एक श्लोक को भी यदि मनुष्य अर्थ और भावसहित मनन करके काम में लाये तो उसका उद्धार हो सकता है।
यहाँ गीता के एक श्लोक के विषय में कुछ विचार किया जाता है—
सुना गया है कि योरप के किसी एक बड़े भारी पुस्तकालय में अनेक देशों की भाषाओं और लिपियों की पुस्तकें लाखों की संख्या में एकत्र थीं, जो सुव्यवस्थापूर्वक आलमारियों में सजायी हुई थीं। उस पुस्तकालय के बड़े हाल के मध्य में टेबल पर सुन्दर वस्त्र के ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता की एक पुस्तक रखी हुई थी। वहाँ एक भारतवासी सज्जन गये, उन्होंने उस पुस्तकालय के प्रधान से पूछा—‘टेबल पर सजाकर रखी हुई यह कौन-सी पुस्तक है !’ उन्होंने उत्तर में कहा ‘श्रीमद्भगवद्गीता।’ भारतीय सज्जन ने पूछा—‘भगवद्गीता क्या है ?’ इस प्रश्न को सुनकर उन अधिकारी महोदय को बड़ा आश्चर्य हु्आ। उन्होंने हँसकर कहा—‘बड़े आश्चर्य की बात है कि आप भारत में रहकर भी भारत के प्रधान और उच्चकोटि के महापुरुष श्रीकृष्ण के द्वारा अपने प्रिय मित्र अर्जुन को दिये हुए उपदेशरूप श्रीमद्भगवद्गीता-ग्रन्थ को नहीं जानते ! यह तो बहुत ही लज्जा की बात है। यह सुनकर वे भारतीय सज्जन बड़े लज्जित हुए। उनपर उस प्रखान के उपर्युक्त वचनों का बड़ा असर पड़ा। उन्होंने कहा—‘मैंने नाम तो सुना था, पर इसे देखा न था; अब मैं इसका अध्ययन करूँगा।’
जिस गीता का आदर भारतेतर देशों में भी है, उसका हम भारतीय लोग जितना आदर करना चाहिये, उतना नहीं करते—यह बड़ी ही लज्जा और दुःख की बात है।
गीता बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह भगवान् की वाड्म़यी मूर्ति है, भगवान् का निःश्वास है और भगवान् के हृदय का भाव है। यह उपनिषद् आदि सम्पूर्ण शास्त्रों का सार है। गीता की भाषा बहुत ही सरल, सुन्दर और भावपूर्ण है। गीता के अध्ययन का महत्त्व गंगास्नान और गायत्रीजप से भी बढ़कर कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है। इसका श्रवण, कथन, गायन, और स्मरण—सभी परम मधुर और परम कल्याणप्रद है।
गीता में अठारह अध्याय हैं, सात सौ श्लोक हैं; उनमें बहुत-से ऐसे श्लोक हैं, जिनमें से एक श्लोक को भी यदि मनुष्य अर्थ और भावसहित मनन करके काम में लाये तो उसका उद्धार हो सकता है।
यहाँ गीता के एक श्लोक के विषय में कुछ विचार किया जाता है—
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। (6/5)
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। (6/5)
‘अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को
अधोगति
में न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना
शत्रु।’
इस श्लोक में प्रधान चार बातें बतलायी गयी हैं—
1-मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये।
2-मनुष्य को अपने द्वारा अपना अधःपतन नहीं करना चाहिये।
3-मनुष्य आप ही अपना मित्र है।
4-मनुष्य आप ही अपना शत्रु है।
अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य जिससे अपना परम हित-कल्याण हो, उस भाव और आचरण को तो ग्रहण करता है और जिससे अपना अधःपतन हो, उस भाव और आचरण का सर्वथा त्याग करता है, वही अपने द्वारा अपना उद्धार कर रहा है। इसके विपरीत, जो मनुष्य जिससे अपना अधःपतन हो, उस भाव और आचरण को तो ग्रहण करता है तथा जिससे अपना कल्याण हो, उस भाव और आचरण को ग्रहण नहीं करता, वही अपने द्वारा अपना अधःपतन करता है। अतः जो मनुष्य अपने द्वारा अपने उद्धार का उपाय करता है, वह स्वयं ही अपना मित्र है; इसके विपरीत, जो मनुष्य समझ-बूझकर भी अपने कल्याण के विरुद्ध आचरण करता है, वह स्वयं ही अपना शत्रु है।
अब यह भलीभाँति विचार करना चाहिये कि अपने द्वारा अपना उद्धार करना क्या है और अपने द्वारा अपना अधःपतन करना क्या है।
शास्त्रों में कल्याण के लिये बहुत-से उपाय बतलाये गये हैं और सज्जन पुरुष भी हमारे कल्याण की बहुत-सी बातें कहते हैं। उन सबपर एवं उनके सिवा भी जो आजतक आपने पढ़ा, सुना, समझा है, उसपर तथा उसके अतिरिक्त भी, ईश्वर ने आपको जो बुद्धि, विवेक और ज्ञान दिया है, उसका आश्रय लेकर पक्षपातरहित हो आपको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये। इस प्रकार गम्भीर विचार करने पर आपकी बुद्धि में संशय और भ्रम से रहित जो कल्याण कर भाव और आचरण प्रतीत हो, उसको सिद्धान्त मानकर तत्परता पूर्वक कटिबद्ध हो उसका सेवन करना और उसके विपरीत भाव और आचरण का कभी सेवन न करना—यही अपने द्वारा अपना उद्धार करना है। इसी प्रकार जो भाव और आचरण हमें विचार करने पर लाभप्रद प्रतीत हो, उसका सेवन न करना और जो पतन कारक प्रतीत हो, उसका सेवन करना अपना अधःपतन करना है।
संसार में जितने भी हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, सिख आदि मत और सिद्धान्त माने जाते हैं, उन सबसे आदरपूर्वक निरपेक्ष होकर पक्षपातरहित हो समभावसे विवेकपूर्वक गम्भीरता से अपनी बुद्धि के द्वारा निर्णय करते हुए विचार करना चाहिये कि परम कल्याण दायक भाव और आचरण कौन-से हैं और उनके विपरीत पतन कारक भाव और आचरण कौन-से हैं। एवं इसके लिये जो-जो बातें अपने मनमें आयें, उनपर सोच-विचार करके निर्णय की हुई बातों की हमें दो श्रेणियाँ बना लेनी चाहिये—(1) कल्याणकारक अच्छी बातें और (2) पतनकारक बुरी बातें। जो कल्याणकारक बातें हों, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हों, उनको बायीं ओर रखें। इस प्रकार अलग-अलग दो पंक्तियाँ बन जायँगी, जिनमें से दाहिनी ओरकी पंक्ति ग्रहण करने के लिये एवं बायीं ओर की पंक्ति त्याग करने के लिये होगी। उदाहरण के लिये—
1-एक ओर सद्व्यवहार है और दूसरी ओर दुर्व्यवहार। अब यह निर्णय करना है कि इन दोनों में कौन उत्तम और कल्याणकारक है तथा कौन निकृष्ट और पतनकारक है।
एक मनुष्य आपके साथ अपना स्वार्थ और अभिमान छोड़कर बहुत उत्तम श्रेणी का व्यवहार करता है तो इससे आपको कितनी प्रसन्नता और शान्ति मिलती है। आपके हृदयपर यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। अतः इससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि आप भी दूसरों के साथ ऐसी ही उत्तम व्यवहार करें। इसके विपरीत, कोई व्यक्ति आपके प्रति अत्याचार करता है, दुर्व्यवहार करता है, आपका अपमान करता है तो उससे आपके चित्त में क्रोध, भय, अशान्ति और क्षोभ हो जाते हैं। आपके चित्तमें उसके व्यवहार का यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अनुचित और बुरा बर्ताव किया। अतः उससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि आप ऐसा दुर्व्यवहार किसी के साथ न करें।
इस श्लोक में प्रधान चार बातें बतलायी गयी हैं—
1-मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये।
2-मनुष्य को अपने द्वारा अपना अधःपतन नहीं करना चाहिये।
3-मनुष्य आप ही अपना मित्र है।
4-मनुष्य आप ही अपना शत्रु है।
अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य जिससे अपना परम हित-कल्याण हो, उस भाव और आचरण को तो ग्रहण करता है और जिससे अपना अधःपतन हो, उस भाव और आचरण का सर्वथा त्याग करता है, वही अपने द्वारा अपना उद्धार कर रहा है। इसके विपरीत, जो मनुष्य जिससे अपना अधःपतन हो, उस भाव और आचरण को तो ग्रहण करता है तथा जिससे अपना कल्याण हो, उस भाव और आचरण को ग्रहण नहीं करता, वही अपने द्वारा अपना अधःपतन करता है। अतः जो मनुष्य अपने द्वारा अपने उद्धार का उपाय करता है, वह स्वयं ही अपना मित्र है; इसके विपरीत, जो मनुष्य समझ-बूझकर भी अपने कल्याण के विरुद्ध आचरण करता है, वह स्वयं ही अपना शत्रु है।
अब यह भलीभाँति विचार करना चाहिये कि अपने द्वारा अपना उद्धार करना क्या है और अपने द्वारा अपना अधःपतन करना क्या है।
शास्त्रों में कल्याण के लिये बहुत-से उपाय बतलाये गये हैं और सज्जन पुरुष भी हमारे कल्याण की बहुत-सी बातें कहते हैं। उन सबपर एवं उनके सिवा भी जो आजतक आपने पढ़ा, सुना, समझा है, उसपर तथा उसके अतिरिक्त भी, ईश्वर ने आपको जो बुद्धि, विवेक और ज्ञान दिया है, उसका आश्रय लेकर पक्षपातरहित हो आपको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये। इस प्रकार गम्भीर विचार करने पर आपकी बुद्धि में संशय और भ्रम से रहित जो कल्याण कर भाव और आचरण प्रतीत हो, उसको सिद्धान्त मानकर तत्परता पूर्वक कटिबद्ध हो उसका सेवन करना और उसके विपरीत भाव और आचरण का कभी सेवन न करना—यही अपने द्वारा अपना उद्धार करना है। इसी प्रकार जो भाव और आचरण हमें विचार करने पर लाभप्रद प्रतीत हो, उसका सेवन न करना और जो पतन कारक प्रतीत हो, उसका सेवन करना अपना अधःपतन करना है।
संसार में जितने भी हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, सिख आदि मत और सिद्धान्त माने जाते हैं, उन सबसे आदरपूर्वक निरपेक्ष होकर पक्षपातरहित हो समभावसे विवेकपूर्वक गम्भीरता से अपनी बुद्धि के द्वारा निर्णय करते हुए विचार करना चाहिये कि परम कल्याण दायक भाव और आचरण कौन-से हैं और उनके विपरीत पतन कारक भाव और आचरण कौन-से हैं। एवं इसके लिये जो-जो बातें अपने मनमें आयें, उनपर सोच-विचार करके निर्णय की हुई बातों की हमें दो श्रेणियाँ बना लेनी चाहिये—(1) कल्याणकारक अच्छी बातें और (2) पतनकारक बुरी बातें। जो कल्याणकारक बातें हों, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हों, उनको बायीं ओर रखें। इस प्रकार अलग-अलग दो पंक्तियाँ बन जायँगी, जिनमें से दाहिनी ओरकी पंक्ति ग्रहण करने के लिये एवं बायीं ओर की पंक्ति त्याग करने के लिये होगी। उदाहरण के लिये—
1-एक ओर सद्व्यवहार है और दूसरी ओर दुर्व्यवहार। अब यह निर्णय करना है कि इन दोनों में कौन उत्तम और कल्याणकारक है तथा कौन निकृष्ट और पतनकारक है।
एक मनुष्य आपके साथ अपना स्वार्थ और अभिमान छोड़कर बहुत उत्तम श्रेणी का व्यवहार करता है तो इससे आपको कितनी प्रसन्नता और शान्ति मिलती है। आपके हृदयपर यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। अतः इससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि आप भी दूसरों के साथ ऐसी ही उत्तम व्यवहार करें। इसके विपरीत, कोई व्यक्ति आपके प्रति अत्याचार करता है, दुर्व्यवहार करता है, आपका अपमान करता है तो उससे आपके चित्त में क्रोध, भय, अशान्ति और क्षोभ हो जाते हैं। आपके चित्तमें उसके व्यवहार का यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अनुचित और बुरा बर्ताव किया। अतः उससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि आप ऐसा दुर्व्यवहार किसी के साथ न करें।
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